तीन गुना बढ़े कुपोषित बच्चे, योजनाएं बेअसर
राज्यसभा के आंकड़े और उत्तराखंड की स्थिति ने खोली सिस्टम की पोल

‘खिलती कलियां’ योजना ठप, अब केवल मिशन भरोसे
देश में विकास की रफ्तार तेज़ हो सकती है, लेकिन बच्चों की सेहत आज भी उसी जगह ठहरी हुई है जहां दशक पहले थी। राज्यसभा में हाल ही में प्रस्तुत आंकड़ों ने यह सच्चाई सामने रखी कि भारत में हर चौथा बच्चा कुपोषण का शिकार है। लंबाई, वज़न और संपूर्ण पोषण के पैमाने पर देश का भविष्य लगातार कमजोर हो रहा है। और उत्तराखंड जैसे छोटे लेकिन संवेदनशील राज्य में भी हालात किसी बड़े संकट से कम नहीं हैं।सवाल उठता है कि हर साल जो करोड़ों का बजट मंजूर होता है वो जाता कहा है? बच्चे फिर भी भूखे क्यों हैं?
राज्यसभा में खुलासा: 51 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2024 तक देशभर में 0 से 6 वर्ष के 7.72 करोड़ बच्चों की जांच की गई। इनमें से:
- 6.64% बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित (अत्यधिक कमजोर) पाए गए,
- जबकि 17.46% बच्चे मध्यम रूप से कुपोषण का शिकार थे।
- इस प्रकार कुल मिलाकर लगभग 51 लाख बच्चे कुपोषण से प्रभावित हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में स्थिति और भी चिंताजनक है। उत्तर प्रदेश में 1.89 करोड़ बच्चों की जांच में 83.38 लाख बच्चों की लंबाई उम्र के अनुपात में कम पाई गई। कई जिलों में यह आंकड़ा 50% से अधिक है। उत्तराखंड में भी सुधार की बजाय हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।
उत्तराखंड: पोषण पर संकट, बढ़ता आंकड़ा, थमता असर
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार उत्तराखंड में:
- 27% बच्चे स्टंटिंग (कम लंबाई) का शिकार हैं,
- 26.6% बच्चों का वज़न उम्र के अनुसार कम है,
- और 9% बच्चों में गंभीर कमजोरी (वेस्टिंग) पाई गई है।
साल 2019-20 में राज्य में गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की संख्या 1,129 थी, जो 2023-24 में बढ़कर 2,983 हो गई — यानि लगभग तीन गुना वृद्धि। यह तब है जब सरकार द्वारा पोषण योजनाओं पर 430 करोड़ रुपये तक खर्च किए जा चुके हैं।
उत्तराखंड में बजट तो है, लेकिन असर क्यों नहीं दिख रहा?
उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2025-26 के लिए ₹1.01 लाख करोड़ का बजट पेश किया है, जिसमें स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों के लिए करीब ₹15,000 करोड़ का प्रावधान किया गया है। केंद्र से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) और पोषण योजनाओं के अंतर्गत ₹989.74 करोड़ की अतिरिक्त सहायता भी राज्य को मिली है। इसके बावजूद बच्चों में कुपोषण की दर घट नहीं रही है। इसकी प्रमुख वजहों में योजनाओं का सही क्रियान्वयन न होना, ज़मीनी स्तर पर निगरानी तंत्र की कमजोरी, आंगनबाड़ी केंद्रों में स्टाफ और संसाधनों की कमी, और पूर्ववर्ती योजनाओं जैसे “खिलती कलियां बाल पोषण अभियान” का ठप पड़ जाना शामिल हैं। बजट कागज़ों में है, लेकिन ज़रूरतमंद बच्चों तक उसका असर पहुंचाने की व्यवस्था अभी भी कमजोर बनी हुई है।
वर्तमान में राज्य में दो प्रमुख माध्यमों से कार्य किया जा रहा है:
- पोषण मिशन 2.0 – केंद्र सरकार की योजना, जिसमें बच्चों की निगरानी, माताओं की शिक्षा और तकनीकी व्यवस्था शामिल है।
- आंगनबाड़ी केंद्र – उत्तराखंड के 20,000 से अधिक आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों को पूरक आहार, टीकाकरण और स्वास्थ्य जांच जैसी सुविधाएं दी जा रही हैं।
ज़मीनी हकीकत: योजनाएं कागज़ पर, असर कहीं नहीं
हालांकि योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनका असर ज़मीन पर बहुत सीमित है:
कई आंगनबाड़ी केंद्रों में भवन नहीं हैं, शौचालय नहीं हैं।
कार्यकर्ताओं की संख्या कम है और उनमें से कई प्रशिक्षित नहीं हैं।
पोषण सामग्री की आपूर्ति अनियमित है।
ग्राम स्तर पर बनी स्वास्थ्य व पोषण समितियां निष्क्रिय हैं।
न तो निगरानी है, न जवाबदेही। परिणामस्वरूप, करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद बच्चों की हालत जस की तस बनी हुई है — या और भी बिगड़ गई है।
योजनाएं नहीं, ज़िम्मेदारी चाहिए
कुपोषण केवल आंकड़ों का विषय नहीं है। यह एक बच्चे के जीवन, भविष्य और समाज की बुनियाद से जुड़ा सवाल है। जब तक सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी नहीं आएगी, तब तक बजट और घोषणाएं केवल रपटों तक सीमित रह जाएंगी।