
नदियों, गाड-गदेरों के किनारे हुआ अतिक्रमण बना तबाही का कारण
गीता मिश्रा, देहरादून।
राज्यभर में नदियों, गाड और गदेरों के किनारे फैला अतिक्रमण आज बड़े खतरे का रूप ले चुका है। लगातार बढ़ती आबादी और बेरोजगारी ने हालात को और गंभीर बना दिया है। सरकारें विकास के तमाम दावे करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर नदियों के किनारे हो रहे अतिक्रमण पर रोक लगाने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेशों के बावजूद सरकारों ने इन अतिक्रमणों को हटाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वजह साफ है, इन बस्तियों में बड़ी संख्या में गरीब और श्रमिक वर्ग का वोट बैंक बसता है। इन्हें उजाड़ने का साहस कोई सरकार नहीं जुटा सकी, क्योंकि राजनीतिक समीकरण पर इसका सीधा असर पड़ सकता है।
परिणामस्वरूप, जिन इलाकों में कभी नदियों के बहाव का प्राकृतिक मार्ग था, आज वहां पक्के मकान, अस्थायी झोपड़ियां और बाजार खड़े हैं। बरसात के दिनों में जब नदियाँ अपने उफान पर आती हैं तो ये अतिक्रमण सबसे पहले तबाही का शिकार बनते हैं। दुख की बात यह है कि प्रशासन और सरकारें आपदा के बाद राहत और मुआवजे का ढोल पीटती हैं, लेकिन असल समस्या का स्थायी समाधान नहीं खोज पातीं।
जानकार बताते हैं कि यदि समय रहते इन अतिक्रमित क्षेत्रों का पुनर्वास कर लोगों को सुरक्षित जगहों पर बसाया गया होता और नदियों-गाड-गदेरों का क्षेत्र खाली कर लिया गया होता, तो आज इतने बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान देखने को नहीं मिलता।
दरअसल, यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ और विकास योजनाओं की असफलता का परिणाम है। यदि अब भी सरकारें कड़े कदम नहीं उठातीं, तो आने वाले समय में ऐसी तबाहियां और भी बड़े पैमाने पर देखने को मिल सकती हैं।