शील, शक्ति और शौर्य की प्रतीक: गढ़भूमि की अमर वीरांगना तीलू रौतेली
जयंती पर विशेष

जिसने 15 साल की उम्र में तलवार उठाई, 7 युद्ध लड़े और गढ़वाल को शत्रुओं से मुक्त कराया – वही थीं तीलू रौतेली
गीता मिश्र, देहरादून।
उत्तराखंड की वीर भूमि गढ़वाल में जहां पर्वतों की ऊंचाई साहस की मिसाल बनती है, वहीं यहां की मिट्टी ने ऐसी अनेक वीरांगनाएं भी जन्म दी हैं जिनके अदम्य साहस और मातृभूमि के प्रति समर्पण ने इतिहास को गौरवान्वित किया। ऐसी ही एक अमर नाम है – वीरांगना तीलू रौतेली।
जब बाकी दुनिया 15 साल की उम्र में जीवन के सपने देख रही होती है, तब तीलू रौतेली ने अपने जीवन को मातृभूमि के चरणों में समर्पित कर दिया। तलवार हाथ में ली, घोड़े पर सवार हुईं और उस दौर में एक के बाद एक सात युद्धों में अपने पराक्रम से दुश्मनों को धूल चटा दी। आज तीलू रौतेली केवल एक ऐतिहासिक नाम नहीं, बल्कि नारी शक्ति, साहस और बलिदान की जीवंत मूर्ति हैं, जिनकी गाथा पीढ़ियों को प्रेरणा देती है।
उत्तराखंड की वीर भूमि गढ़वाल ने अनेक रणबांकुरे पैदा किए हैं, पर जिनका नाम वीरता, साहस और नारी शक्ति के प्रतीक के रूप में इतिहास में अमर है, वह हैं वीरांगना तीलू रौतेली।
कौन थीं तीलू रौतेली
तीलू रौतेली का जन्म 17वीं सदी में गढ़वाल (वर्तमान पौड़ी जनपद) के गुड्डा सौड़ गांव में हुआ था। मात्र 15 साल की उम्र में रणभूमि में कुदने वाली विश्व की एकमात्र वीरांगना “तीलू रौतेली” जिन्हें गढ़वाल की लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है । तीलू पौड़ी गढ़वाल चौंदकोट के गुराड गांव की रहने वाली थी और इनका वास्तविक नाम तिलोत्तमा देवी था । तीलू रौतेली का जन्म 1663 में हुआ था। गढ़वाल में प्रति वर्ष 8 अगस्त को इनकी जयंती मनाई जाती है। तीलू रौतेली के पिता का नाम भूपसिंह रावत और माता का नाम मैणावती देवी था । इनके दो भाई भी थे जिनका नाम भगतु और पथ्वा था। इनके पिता भुपसिंह बहुत ही वीर और साहसी आदमी थे जिस कारण से गढ़वाल के नरेश मानशाह ने इन्हें गुराड गांव की थोकदारी दी थी वहीं ये गढ़वाल नरेश के सेना में भी थे। तीलू रौतेली का बचपन का समय बीरौंखाल के कांडा मल्ला गांव में बीता जिस कारण से आज भी कांडा मल्ला में उनके नाम का कौथिग (मेला) लगता है। वह राजपूत रौतेला वंश से थीं। उनके पिता भूप सिंह रौतेला एक वीर योद्धा थे। तीलू बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और युद्ध कलाओं में दक्ष थीं।
15 वर्ष की आयु में रणभूमि में कदम
एक समय ऐसा आया जब कत्यूरी और भोटिया आक्रांताओं ने गढ़वाल के गांवों पर हमला करना शुरू कर दिया। तीलू के पिता और भाई युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए। घर में शोक का माहौल था, लेकिन इस दुख की घड़ी में तीलू ने साहस दिखाया और मात्र 15 वर्ष की आयु में रणभूमि में उतरने का निर्णय लिया।
उन्होंने अपनी सहेलियों – बिन्दुली और देवकी के साथ मिलकर सात युद्धों में भाग लिया और हर युद्ध में दुश्मनों को पराजित किया। उनकी वीरता के किस्से गढ़वाल के हर कोने में आज भी सुने जाते हैं।
तीलू रौतेली के युद्ध
- खैरागढ़ युद्ध
- कालागढ़ युद्ध
- सल्ट महादेव युद्ध
- चंडपुरगढ़ युद्ध
- परीगढ़ युद्ध
- भ्यूंगरगढ़ युद्ध
- नैनापति युद्ध
इन सभी युद्धों में तीलू रौतेली ने न केवल नेतृत्व किया बल्कि विजयी भी रहीं।
तीन वर्षों तक लगातार युद्ध करने के बाद जब तीलू रौतेली घर लौटीं तो उन्हें एक छलपूर्वक विष देकर मार दिया गया। लेकिन वह अपने जीवन के केवल 22 वर्षों में जो कर गईं, वह अमर गाथा बन गया।
नारी शक्ति की प्रतीक
तीलू रौतेली को भारत की एकमात्र महिला योद्धा माना जाता है जिसने लगातार कई युद्ध लड़े और जीत हासिल की। उत्तराखंड में हर साल उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किए जाते हैं। राज्य सरकार ने ‘तीलू रौतेली पुरस्कार’ की भी स्थापना की है, जो उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिलाओं को दिया जाता है।
लोकगाथाओं में जीवित हैं तीलू
आज भी गढ़वाल की जागर, फड़, लोकगीतों, और कथाओं में तीलू रौतेली का नाम गूंजता है। बच्चे-बूढ़े, महिलाएं-पुरुष सभी उन्हें गढ़भूमि की देवी के रूप में पूजते हैं।
शील, शक्ति और शौर्य की मूर्ति – तीलू रौतेली को शत्-शत् नमन।
“शील की तू मूरत थी, शक्ति की तू रूप।
रण में गरजा तेरा घोड़ा, दुश्मन जाए झुक।”