“नदी रुठी नहीं थी, हम ही ना समझ सके उसकी पीड़ा”
नदी जीवन है—शर्त बस इतनी है कि उसे बहने दो

विशेष रिपोर्ट, गीता मिश्रा।
देहरादून।
धराली में जो हुआ, वो आपदा नहीं थी—वो नदी की वापसी थी। हमने उसकी राह छीनी, उसे सीमाओं में बांधना चाहा, पर हम भूल गए कि नदी तो नाम है निरंतर बहने का। उसका काम है रात दिन अनवरत बहना।
नदियां कभी रूठती नहीं… वे तो बस लौटती हैं अपने मार्ग पर — वहीं, जहां से हमने उन्हें खदेड़ा था।
उत्तरकाशी की धराली घाटी में बहता मलबा सिर्फ पत्थर नहीं, हमारी भूलों का बोझ है।
हमने नदियों को बांधा, मोड़ा, रोका और उन्हें व्यू पॉइंट बना दिया । सालों खामोशी ओढ़े वो देखती रही कुछ नहीं बोली और फिर टूट गया उसके सब्र का बांध। और फिर वो हुआ जिसकी कल्पना भी सिरहन पैदा कर देने वाली है।
ये कोई प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि एक बेमेल विकास की कीमत है – और ये कीमत सिर्फ घरों से नहीं, सभ्यताओं से वसूली जाती है।
“मैं बहती थी चुपचाप कभी,
रेत संग, फूलों के द्वार तक।
अब रास्ते बंद हैं मेरे,
तो क्यों न बह जाऊं मलबे के पार तक?”
धराली जैसे गांव, जो एक समय नदी के संग जीवन का प्रतीक हुआ करते थे,
अब कंक्रीट की नालियों में तब्दील हो गए। वहां लोग “रिवर व्यू पॉइंट” बसाने लगे —
लेकिन ये कोई व्यूपॉइंट नहीं था, ये नदी की सांस थी, जिसकी राह हमने ब्लॉक कर दी।
बारिश के उस तूफानी दिन, जब आसमान चीख पड़ा और पहाड़ों से मलबा बहता चला आया, तब किसी बुज़ुर्ग की कही वो बात फिर से कानों में गूंजने लगी—
“नदी के पास घर मत बसाओ बेटा, वो अपना रास्ता कभी नहीं भूलती…”
धराली : रिवर व्यू से विनाश तक की दास्तां
धराली, जहां कभी “रिवर-व्यू कॉटेज”, “माउंटेन फेस लॉज” और “सेल्फी स्पॉट्स” बसते थे, वहां अब कीचड़ और टूटी छतों की तसवीरें वायरल हो रही हैं। लोग कहते हैं—”सब खत्म हो गया… हाय, सब लुट गया!”
क्या सचमुच यह अप्रत्याशित था
हमने जलधाराओं को अपने नक्शों से मिटा दिया, रेत को कंक्रीट से ढंक दिया, और बहती नदियों को शहरी सपनों में बदल दिया। पर जब वर्षा आई, तो नदी ने फिर से वो पुरानी फाइलें खोल दीं—वही नक्शे, वही रास्ते, वही चेतावनियां।
गांव के कोने में बैठे 78 वर्षीय एक बुजुर्ग कहते हैं,
“हमने तो देखी हैं ये नदियां तब, जब वो सिर्फ पानी नहीं, पहचान थीं। आज के बच्चे सोचते हैं ये बस व्यू है, पर नदी कभी सजावट नहीं होती, वो जीवन भी है और विनाश भी…”
शायद इसी वजह से जब नदी लौटी, उसने हिंसा नहीं की, सिर्फ याद दिलाया कि
मैं मेहमान नहीं, इस घाटी की मालकिन हूं…”
प्रशासन से उम्मीद, प्रकृति से संतुलन ज़रूरी
प्रशासन राहत और पुनर्निर्माण में जुटा है। NDRF और SDRF की टीमों ने अब तक सैकड़ों लोगों को सुरक्षित निकाला है। हेलीकॉप्टर से खाद्य सामग्री, दवाएं और पेयजल पहुंचाया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम फिर वही गलती दोहराएंगे?
अब समय है कि नई पीढ़ी नदियों को दुश्मन समझना छोड़ दे। जल को काबू में करने की बजाय उसके साथ संतुलन बनाना सीखें।
नदी को हमने ‘जीवनदायिनी’ नहीं कहा — वो है ही जीवनदायिनी। धरती पर अगर नदियों का अस्तित्व मिट जाए, तो मानव जीवन अपने आप ही समाप्त हो जाएगा।
इतिहास गवाह है जहां-जहां नदियां वही वहां वहां उनके किनारो पर सभ्यताओं का जन्म हुआ वह फली फूली विकसित हुई। उत्तराखंड के पहाड़ों में भी नदियों के साथ सभ्यताओं का जन्म हुआ। वो सिर्फ जल नहीं लाईं — वो भाषा, संस्कृति, विश्वास और जीवन का आधार रहीं।
पर जब-जब पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण हुआ, जब-जब नदी का पथ रोका गया, तब-तब नदियों ने चेताया भी है – और फिर, उफान पर आई हैं।
“नदी कोई उपमा नहीं है,
वह सच्चाई है — जीवन का चलायमान रूप।
हमने उसे रोकने की भूल की, अब वह बता रही है,
कि वह सिर्फ जलधारा नहीं, चेतावनी भी है।”
इस आपदा में बहुत कुछ बहा — घर, दुकानें, होटल…
लेकिन बह गया हमारा वह दंभ भी, जिसमें हमने सोचा था कि हम प्रकृति से बड़े हैं।
एक बुजुर्ग जो नदी के तट पर बैठा अपने जीवन की बची-खुची थैलियां समेट रहा था,
कहता है – “नदी तो शांत बह रही थी… लेकिन हम ही तो उसे रोकने पर आमादा थे।
अब वह लौट रही है। हमें क्या हक था उसके रास्ते में घर बनाने का?
धराली में जो हुआ वह चेतावनी है।
नदी अगर फिर कुछ वर्षों तक शांत बहती रही, तो मत भूलिए, यह उसकी सहनशीलता है, मौन है…
लेकिन अगर फिर वही भूल दोहराई गई,
तो यह भी याद रखिए — नदी को कोई बांध नहीं सकता।
वो बहना जानती है, बहकर चेताना जानती है – और जब आवश्यक हो, बहा देना भी।