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छायादीप : देहरादून में एक और सिनेमा हॉल अंत की ओर

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देहरादून। कभी उत्तराखंड की राजधानी के दिल में बसे सिनेमा हॉल शहर की रौनक और सामाजिक जुड़ाव का प्रतीक हुआ करते थे। लेकिन अब देहरादून का सांस्कृतिक नक्शा लगातार बदल रहा है। गांधी पार्क के सामने गली स्थित छाया दीप सिनेमा, जो कभी रोशनी और तालियों से गूंजता था अब अपने अंतिम अध्याय की ओर बढ़ रहा है। जल्द ही यह इतिहास बन जाएगा।

पिछले कुछ वर्षों में देहरादून ने एक-एक कर अपने लगभग सभी पुराने सिनेमा हॉल खो दिए। ओडियन, फिल्मिस्तान, लक्ष्मी, कनक, प्रभात, कृष्णा और कैपरी हॉल अब केवल नाम भर रह गए हैं। किसी की जगह शॉपिंग मॉल बन गए, तो कहीं वाणिज्यिक कॉम्प्लेक्स खड़े हो गए और अब छाया दीप सिनेमा की बारी है। 

यादों में बसा छाया दीप

स्थानीय निवासियों के लिए यह हॉल सिर्फ फिल्में देखने की जगह नहीं, बल्कि यादों का एक कोना था। पुराने दर्शक बताते हैं कि यहां हर त्योहार या रविवार को परिवार के साथ फिल्म देखने जाना एक एक रोमांचक एहसास हुआ करता था। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड से आए श्रमिक वर्ग के लिए यह जगह उनके एकाकीपन को तोड़ने और अपनेपन का अहसास काम करने वाली थी।

शहर की पुरानी पीढ़ी कहती है “छाया दीप में फिल्म देखना एक अनुभव था, सिर्फ शो नहीं। टिकट खिड़की की कतारें, मूंगफली की खुशबू और इंटरवल में चाय, यह सब अब यादों में रह गया है।”

अब बस एक सिनेमा बाकी

वर्तमान में शहर में सिर्फ ओरिएंट सिनेमा ही ऐसा पारंपरिक हॉल बचा है, जहां दर्शक अब भी सिल्वर स्क्रीन पर चलचित्र का आनंद लेने पहुंते हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर समय रहते प्रशासन ने पुराने हॉल्स को संरक्षित करने की दिशा में कदम नहीं उठाए, तो जल्द ही ओरिएंट भी इतिहास बन जाएगा।

शहरी संस्कृति पर अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि यह सिर्फ एक इमारत का अंत नहीं, बल्कि “एक सामाजिक और सांस्कृतिक युग के खत्म होने की निशानी है।
सांस्कृतिक विश्लेषक प्रो. आरपी पंत का कहना है, “देहरादून जैसे शहर में जहां सिनेमा हॉल कभी सामाजिक एकता के केंद्र हुआ करते थे, उनका गायब होना एक भावनात्मक रिक्तता छोड़ जाता है। इन हॉल्स को सांस्कृतिक धरोहर की तरह संरक्षित किया जाना चाहिए।”

संस्कृति बनाम कारोबार

नई पीढ़ी के लिए मल्टीप्लेक्स भले ही अधिक सुविधाजनक हों, लेकिन पुराने सिंगल-स्क्रीन थिएटरों में जो अपनापन और समुदाय का भाव था, वह अब दुर्लभ है। सिनेमा हॉल अब भावनाओं की जगह “रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट” के गणित से मापे जाने लगे हैं।

स्थानीय नागरिकों की मांग है कि छाया दीप जैसे सिनेमा हॉल को तोड़ने से पहले प्रशासन को विकल्पों पर विचार करना चाहिए  जैसे इसे सांस्कृतिक केंद्र, फिल्म आर्काइव या सिनेमा संग्रहालय के रूप में विकसित किया जा सकता है।

छाया दीप सिनेमा का अंत केवल एक भवन का ध्वंस नहीं, बल्कि देहरादून की सामूहिक स्मृतियों का विखंडन है।
अब सवाल यही है, क्या आने वाली पीढ़ियां इन हॉल्स को सिर्फ तस्वीरों में देखेंगी, या शहर फिर एक बार अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का प्रयास करेगा?

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