मिच्छामि दुक्कडम् : पर्युषण के अंतिम दिन क्षमा संदेश से गूंजे मंदिर
कल से शुरू होगा दिगंबर समाज का दशलक्षण पर्व

भगवान महावीर ने कहा है-
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्तिमे सव्व भुएस् वैरं ममझं न केणई।
अर्थात सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ मेरा बैर नहीं है। यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा मांगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है।
आज श्वेतांबर संप्रदाय के आठ दिवसीय पर्युषण पर्व का अंतिम दिन है, जिसे क्षमावाणी पर्व कहा जाता है। इस अवसर पर जैन अनुयायियों ने एक-दूसरे से कहा – “मिच्छामि दुक्कडम्” यानी यदि मुझसे जाने-अनजाने में कोई भूल या गलती हुई हो तो क्षमा करें।
राजधानी सहित देशभर के मंदिरों और उपासना स्थलों में सुबह से ही सामूहिक प्रतिक्रमण, प्रवचन और क्षमायाचना के कार्यक्रम हुए। अनुयायियों ने व्यक्तिगत रूप से मिलकर या संदेश भेजकर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों से क्षमा मांगी। यह परंपरा न केवल जैन धर्म की आत्मा है बल्कि पूरी मानवता को आपसी कटुता भूलकर नया रिश्ता बनाने का संदेश देती है।
पर्वों का राजा : जैन समाज में पर्युषण का महत्व
जैन समाज का सबसे बड़ा और पवित्र पर्व पर्युषण पूरे देश-दुनिया में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जा रहा है। यह आत्मशुद्धि, तप और क्षमा का ऐसा अवसर है जिसे जैन धर्म में “पर्वों का राजा” कहा जाता है। श्वेतांबर संप्रदाय के अनुयायी इसे आठ दिनों तक और दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी दस दिनों तक मनाते हैं। खास बात यह है कि जैसे ही श्वेतांबर समाज का पर्युषण संपन्न होता है, दिगंबर समाज का दशलक्षण पर्व शुरू हो जाता है।
क्या है पर्युषण
संस्कृत शब्द “परि” (चारों ओर) और “उषण” (ठहरना) से बना पर्युषण का अर्थ है – आत्मा के भीतर ठहरना। इसका उद्देश्य सांसारिक मोह-माया से हटकर आत्मिक साधना और तप में लीन होना है। बरसात के समय साधु-साध्वियां चातुर्मास में एक स्थान पर रहते हैं, इसी दौरान यह पर्व मनाया जाता है।
श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा
श्वेतांबर संप्रदाय : आठ दिन का पर्युषण पर्व। इस दौरान सामूहिक उपवास, प्रवचन और अंत में क्षमावाणी पर्व होता है।
दिगंबर संप्रदाय : श्वेतांबरों के पर्युषण के बाद दस दिन का दशलक्षण पर्व। इसमें प्रतिदिन एक धर्मगुण – क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य – की साधना की जाती है।
क्यों कहा जाता है पर्वों का राजा
पर्युषण को पर्वों का राजा इसलिए माना गया है क्योंकि यह आत्मशुद्धि का सबसे बड़ा अवसर है। इसमें पूरा जैन समाज एक साथ साधना करता है। तप, संयम और क्षमा जैसी जैन धर्म की आत्मा इसी पर्व में निहित है।
खास परंपराएं
केश लोचन परंपरा : कुछ साधु-साध्वी इस दौरान अपने बालों को कैंची या उस्तरे से नहीं, बल्कि हाथ से नोचकर त्याग और वैराग्य का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
स्नान न करना : कई अनुयायी इस अवधि में स्नान नहीं करते। उनका मानना है कि जल में सूक्ष्म जीव होते हैं और स्नान से उनकी हिंसा हो सकती है। इसलिए इस दौरान शरीर से अधिक आत्मा की शुद्धि पर ध्यान दिया जाता है।
उपवास और स्वाध्याय : उपवास, सामायिक (ध्यान), प्रतिक्रमण (अपने पापों का चिंतन) और धर्मग्रंथों का अध्ययन पर्युषण का मुख्य आधार है।
पर्युषण क्यों खास
पर्युषण इसलिए विशेष है क्योंकि यह सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आत्मा के उत्थान का पर्व है। आठ दिन (श्वेतांबर) और दस दिन (दिगंबर) तक चलने वाले इस पर्व में हर आयु वर्ग का व्यक्ति शामिल होता है। छोटे बच्चे भी आंशिक उपवास या फलाहार करके अपनी भागीदारी दिखाते हैं, महिलाएं घर-घर में नियम-निष्ठा के साथ साधना करती हैं और बुज़ुर्ग पूरे समाज के लिए आदर्श बनते हैं।
यह पर्व हमें यह सिखाता है कि असली तप शरीर की कठोरता से नहीं बल्कि मन और आत्मा को संयमित करने से है। लोचन जैसी परंपराएं त्याग की मिसाल हैं तो क्षमावाणी मानवता का सबसे सुंदर संदेश है। यही कारण है कि पर्युषण को जैन धर्म में ही नहीं बल्कि पूरे समाज में “पर्वों का राजा” कहा जाता है।
अंत में इतना ही- ‘मिच्छामी दुक्कड़म्’