
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री की कलम से
यूकेएसएसएससी यानी उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा बीती 21 सितम्बर को कराई गई स्नातक स्तरीय भर्ती परीक्षा में नकल के मामले को युवाओं ने अंजाम तक पहुंचा दिया है। इस प्रकरण को लेकर आंदोलनरत युवाओं के बीच पहुंच कर खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने मामले की सीबीआई जांच की घोषणा कर फिलहाल आश्वासन की फुहार से माहौल थाम दिया है लेकिन आठ दिन के इंतजार के बाद सीबीआई जांच की घोषणा से सरकार की किरकिरी भी बहुत हुई है। इन आठ दिनों में गंगा यमुना में इतना पानी बह चुका है कि उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इस पूरे प्रकरण में लब्बोलुआब इतना भर है कि सलाहकारों ने सीएम धामी की चमकदार छवि को बुरी तरह प्रभावित किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो निष्कर्ष यह है कि अब तक छवि निर्माण में खर्च की गई तमाम पूंजी बेरोजगार नौजवानों के आंदोलन के सैलाब में ध्वस्त हो गई है। उसके पुनर्निर्माण में अब नए सिरे से मेहनत करनी होगी।
रामचरित मानस के सुंदर कांड में गोस्वामी तुलसी दास जी एक स्थान पर नीति निर्धारण करते हुए बताते हैं – *”सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस,* *राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥”* वैसे तो यह प्रसंग रावण को विभीषण द्वारा दी गई सीख से संबंधित है किंतु इसका भाव हर काल खंड में सामयिक और समीचीन है। 22 सितम्बर को जब देहरादून के परेड ग्राउंड और हल्द्वानी के बुद्ध पार्क में युवाओं ने आंदोलन शुरू किया था, उसी समय सीबीआई जांच की घोषणा हो जाती तो सीएम की धवल छवि और अधिक बढ़ जाती लेकिन सात दिन तक क्या आयोग, क्या पुलिस, क्या अफसर और क्या पार्टी संगठन, सब एक सुर में तर्क गढ़ते रहे। तर्क भी ऐसे जो किसी के गले नहीं उतर रहे थे। कभी आयोग के अध्यक्ष कह रहे थे कि नकल हुई ही नहीं, यह सिर्फ एक अभ्यर्थी का मामला है, कभी ये कहा गया कि पेपर लीक नहीं हुआ, बल्कि सिर्फ तीन पेज बाहर गए। यह सारा प्रहसन किसी भी सामान्य बुद्धि के लिए स्वीकार्य नहीं था। आनन फानन में एक एसआईटी गठित हुई लेकिन जांच की दिशा दुरुस्त नहीं थी। शुरुआत आयोग से होनी चाहिए थी कि जब सारी व्यवस्थाएं फूल प्रूफ होने का दावा किया जा रहा था, परीक्षा केंद्रों में जैमर लगे थे, मोबाइल प्रतिबंधित था तो फिर तीन पेज बाहर आए कैसे? जिस किसी ने व्यवस्था पर सवाल उठाने की कोशिश की, उस पर ततैया के झुंड की तरह प्रहार किए जाने लगे। रविवार को सरकार को अहसास हो गया था कि अब मामला हाथ से निकलने लगा है, हल्द्वानी में भूख हड़ताल कर रहे भूपेंद्र कोरंगा से सीएम ने खुद बात कर उन्हें मनाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। सोमवार को पुलिस ने उन्हें उठा कर सुशीला तिवारी अस्पताल में जमा कर दिया। इधर परेड ग्राउंड में आंदोलनरत युवाओं के बीच पहुंच कर सीएम धामी ने सीबीआई जांच की घोषणा की लेकिन इस दौरान सरकार की छवि को बहुत नुकसान हो चुका है। धामी जिन्हें धाकड कह कर संबोधित किया जाने लगा था, उस धाकड़ शब्द में से “ध” वर्ण गायब हो चुका था। आंदोलन के दूसरे अथवा तीसरे दिन सीबीआई जांच की घोषणा होती तो परीक्षा में शुचिता, पारदर्शिता और न्यायप्रियता का एक उदाहरण स्थापित हो सकता था। सलाहकारों ने धामी के हाथ से यह अवसर गंवा दिया।
कहना न होगा कि भर्ती परीक्षा का पेपर लीक होने के मुद्दे पर छात्रों- युवाओं- बेरोजगारों के आंदोलन को ज़मीनी स्तर पर इतनी ताकत सरकार के अड़ियल रवैए से ही मिली। देहरादून हो या हल्द्वानी अथवा प्रदेश के किसी और स्थान पर आंदोलनरत युवा पेपर लीक होने की वजह से और अपने सपनों के टूट जाने से क्रुद्ध थे। सत्ता प्रतिष्ठान को इसका आकलन करने में पूरे आठ दिन लग गए जबकि आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील राज्य में तत्काल आपदा न्यूनीकरण की अपेक्षा की जाती है। सलाहकारों की गलत सलाह के कारण धामी सरकार लगातार गलतियों पर गलतियां करती रही। मुख्यमंत्री के सलाहकारों और उनके मीडिया मैनेजमेंट में लगे लोगों ने खुद सरकार की ही भारी फजीहत कराई है। फजीहत भी इस कदर की सरकार को अपनी ही बनाई एस आई टी के चेयरमैन पूर्व जस्टिस वर्मा को रातोंरात बदल कर जस्टिस ध्यानी को जिम्मा सौंपना पड़ा। इस निर्णय से भी सरकार की किरकिरी ही हुई।
बहरहाल फिलहाल धामी ने माहौल थोड़ा शांत कर दिया लेकिन जनता के बीच जो मैसेज गया उससे सरकार को बहुत फायदा हो पाएगा, इसकी संभावना कम ही है।अब समय आ गया है कि धामी खुद उन लोगों की पहचान करें, जिन्होंने उन्हें गलत सलाह दी और अडियल रुख अपनाने के लिए कहा। हालांकि सीबीआई जांच से युवाओं को कितना न्याय मिलेगा, इस बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता। सीबीआई का रिकॉर्ड इस बात की तस्दीक करता है, फिर भी लोगों के बीच एक भरोसा है कि सीबीआई दूध का दूध पानी का पानी कर देगी। दुर्भाग्य से यह भरोसा राज्य की जांच एजेंसियां अर्जित नहीं कर पाई हैं। फिर चाहे विजिलेंस की बात हो या एसआईटी की। अब जरूरत इस बात की है कि 2027 की जनवरी तक जब तक कि चुनाव की अधिसूचना जारी नहीं हो जाती तब तक कोई गलती न हो। वैसे ही पिथौरागढ़ की नन्हीं परी का कातिल बरी हो चुका है और अंकिता के कातिलों को वो सजा नहीं मिली जिसकी अपेक्षा थी। ये दोनों मामले न्यायिक दृष्टि से दुर्लभ से दुर्लभतम थे लेकिन लचर पैरवी ने लोगों का भरोसा खत्म किया है। ये तमाम मामले क्या लोगों के जेहन में जमा नहीं हो रहे होंगे? अभी भी वक्त है, लोगों का भरोसा बरकरार रखने के लिए सरकार के पास बहुत मौके हैं। बाकी तुलसी दास का सूत्र वाक्य तो है ही। समय रहते गलत सलाह देने वालों को किनारे करना ही चाहिए, क्या पता वे किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए धामी को डैमेज करने पर तुले हैं क्योंकि अभी भी आम लोगों में धारणा है कि पुष्कर सिंह धामी भले मानुष हैं और उन्हें कुछ लोग बुरा बनाने पर तुले हैं।