उत्तराखंड
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वैज्ञानिक सोच से परे, पर्यटन तले दबा विकास

जिम्मेदारी निभाने में हर स्तर पर चूक गए जम्मेदार

विकास के शोर में दब रहा हिमालय का संतुलन

आपदा के बाद – शोर, मुआवजा, फिर चुप्पी

गीता मिश्र, देहरादून। 

आज हर तरफ़ सिर्फ़ यही शोर है—”बादल फटा! बादल फटा! ग्लेशियर टूटा!”—लेकिन असली वजहें इस शोर में दब रही हैं। धराली में जो कुछ हुआ, वह सिर्फ एक ‘प्राकृतिक आपदा’ नहीं है। यह चेतावनी थी, जिसे हमने अनसुना किया—ठीक वैसे ही जैसे 2013 में केदारनाथ ने हमें चेताया था, या उससे बहुत पहले जब खीर गंगा के उफान ने 240 प्राचीन मंदिरों के समूह को मिट्टी में मिला दिया था। पहाड़ों की ढलानों पर, नदियों के किनारों पर, और पवित्र घाटियों में अवैज्ञानिक विकास का यह सिलसिला जारी है—और धराली उसकी ताज़ा मिसाल है।

आपदा कोई अचानक आने वाली घटना नहीं—यह हमारी नीतियों, लापरवाही और लालच का तयशुदा नतीजा है।

यह कहानी सिर्फ धराली की नहीं है। गंगोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, और अन्य तीर्थ स्थलों में भी यही हो रहा है—जहां गंगा या उसकी सहायक नदियों के किनारे 200 मीटर के दायरे में होटलों, दुकानों, और पक्के ढांचों की कतारें खड़ी हैं। कोर्ट के आदेशों को ठेंगा दिखाकर यह निर्माण न सिर्फ नियमों की धज्जियां उड़ा रहा है, बल्कि हर दिन आने वाले हजारों पर्यटकों के दबाव से नदियों और पहाड़ों पर और भी भारी बोझ डाल रहा है।

कोर्ट का आदेश – नदी से 200 मीटर तक निर्माण पर रोक

     NGT आदेश (6 नवंबर 2015)

“गंगा नदी के उच्च-बाढ़ रेखा से 200 मीटर के भीतर किसी भी प्रकार का भवन, मकान, होटल या संरचना—बिना पूर्वानुमोदन के—निर्माण नहीं किया जा सकता। राज्य सरकार, निगम, अथॉरिटी या पंचायत इसका आदेश बिना NGT की अनुमति के नहीं दे सकती।”

(स्रोत: NGT निर्णय, 2015 – गंगा नदी संरक्षण मामले में)

 आदेश ध्वस्त : सख़्ती केवल कागज़ों में ,  ज़मीनी हकीकत स्याह 

नदियों के किनारे 200 मीटर के भीतर किसी भी निर्माण पर रोक का आदेश नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने सालों पहले दिया था। यह आदेश सिर्फ़ एक विभाग का नहीं, बल्कि कई स्तरों पर संयुक्त जिम्मेदारी का विषय है। ज़िला प्रशासन, नगर निकाय, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राजस्व विभाग और बिजली-पानी आपूर्ति करने वाले सभी विभागों को इस आदेश को लागू कराना होता है, लेकिन हकीकत यह है कि यह लापरवाही सिर्फ़ एक दफ़्तर में नहीं हुई, बल्कि कई स्तरों पर  हुई है

  •  जिला प्रशासन: अवैध निर्माण की पहचान और रोकथाम की कार्रवाई में देरी।
  • नगर निकाय/ग्राम पंचायत: नक्शा पास करने और अनुमति देने में ढिलाई।
  • राजस्व विभाग: अतिक्रमण व ज़मीन की नाप-जोख में उदासीनता
  • विद्युत विभाग: कनेक्शन देने से पहले निर्माण की वैधता की जांच नहीं।
  • जल संस्थान/जल निगम: पानी की सप्लाई शुरू करने से पहले नियमों की पुष्टि नहीं।
  •  प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड: NGT अनुपालन रिपोर्ट समय पर न भेजना।
  • सिंचाई विभाग: फ्लड ज़ोन और सुरक्षित दूरी मानकों पर अमल न कराना।
  • इन सभी की मिली-जुली चूक के कारण नदी किनारे एक के बाद एक होमस्टे, गेस्ट हाउस और पक्के निर्माण खड़े हो गए, जो अब पर्यावरण और सुरक्षा दोनों के लिए खतरा हैं।

कानूनन, NGT आदेश का उल्लंघन करने पर सिर्फ़ निर्माण कराने वालों पर नहीं, बल्कि संबंधित विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों पर भी व्यक्तिगत जुर्माना, विभागीय कार्रवाई और कोर्ट से नोटिस हो सकते हैं। ट्रिब्यूनल कई मामलों में सीधे अफसरों को कटघरे में खड़ा कर चुका है। इस मामले में भी यही राह खुल सकती है।

 इतिहास गवाह है – गंगा का क्रोध नया नहीं

गंगा की धार सिर्फ जीवनदायिनी नहीं, विनाशक भी बन सकती है—और यह धराली की त्रासदी से बहुत पहले साबित हो चुका है। एक समय में, इसी घाटी में आई भयानक बाढ़ ने 240 प्राचीन मंदिरों का पूरा समूह निगल लिया था। ये मंदिर सदियों से खड़े थे, लेकिन प्रकृति के प्रकोप और इंसानी लापरवाही के आगे टिक नहीं सके।

 अवैज्ञानिक विकास की कीमत

धराली, केदारनाथ, जोशीमठ या रैणी—हर जगह कहानी एक जैसी है। बिना पर्यावरणीय वहन क्षमता के अध्ययन के सड़कें, होटल, होमस्टे और बाजार। पहाड़ काटकर चौड़ी सड़कें, भारी मशीनों की आवाज़, और अब हेलीकॉप्टरों की गूंज—सब मिलकर हिमालय की नाजुक बुनावट को तोड़ रहे है।

आपदा आती है – कैमरों के सामने राहत, हेलीकॉप्टर से मदद, और मुआवजे की घोषणाएं। चंद दिनों में चुप्पी – पीड़ितों को चुप कराया जाता है, सवाल दबा दिए जाते हैं। जवाबदेही शून्य – अनुमति देने वाले विभाग और नेता बच निकलते हैं।

अगली आपदा का इंतजार – निर्माण वहीं चलता रहता है, जब तक नई त्रासदी न हो।

भूगर्भविद और पर्यावरणविद बार-बार कह चुके हैं—मेन सेंट्रल थ्रस्ट जैसी भूगर्भीय गतिविधियों को रोका नहीं जा सकता, लेकिन विकास की दिशा बदली जा सकती है।

  • नदियों और ढालों के किनारे पक्के निर्माण पर स्थायी रोक।
  • मौजूदा निर्माण का ऑडिट और गैर-कानूनी संरचनाओं का हटाया जाना।
  • बड़े प्रोजेक्ट से पहले पर्यावरणीय वहन क्षमता का सख्त आकलन।
  • हेलीकॉप्टर और भारी मशीनों पर वास्तविक निगरानी, सिर्फ कागज़ी आदेश नहीं।

धराली सिर्फ एक और खबर नहीं—यह आने वाले समय की झलक है। कुछ दिन का शोर, कुछ कैमरे, कुछ राहत, और फिर वही पुरानी चुप्पी। जब तक कि एक और आपदा न आ जाए। सवाल यह है—क्या हम सच में सबक सीखेंगे, या फिर खुलेआम अगली त्रासदी का इंतजार करेंगे।

 

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