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📍 राज्य हित बनाम सियासी समीकरण

देहरादून

जब उत्तराखंड 2000 में भारत का 27वां राज्य बना था, तब पर्वतीय जनता की आंखों में जो सबसे चमकदार सपना था, वह था एक ऐसी राजधानी जहां से शासन पहाड़ों की पीड़ा को महसूस कर सके, और विकास की रफ्तार मैदानों से नहीं, गांवों से शुरू हो। उसी सपने का नाम था गैरसैण।

लेकिन 25 वर्षों बाद भी यह सवाल ज्यों का त्यों खड़ा है क्या गैरसैण वास्तव में राजधानी बनेगी, या यह केवल सियासी दलों के घोषणापत्रों का प्रतीक मात्र बना रहेगा?

गैरसैण: केवल भौगोलिक नहीं, भावनात्मक केंद्र

गैरसैण उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं के लगभग मध्य में स्थित है। इसे राजधानी बनाए जाने की मांग केवल भौगोलिक समीकरण नहीं, बल्कि राज्य आंदोलन की आत्मा से जुड़ी है। आंदोलनकारियों का मानना था कि राजधानी यदि देहरादून में ही बनी, तो मैदानी सोच हावी रहेगी और पहाड़ उपेक्षित रहेंगे।

देहरादून बनाम गैरसैण: राजनीतिक असमंजस

बीते दो दशकों में विभिन्न सरकारों ने गैरसैण को राजधानी बनाने के नाम पर केवल प्रतीकात्मक कदम उठाए:

2012 में पहली बार विधानसभा सत्र गैरसैण में हुआ।

2020 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया।

लेकिन नतीजा? विधानसभा भवन वीरान, सड़कें अधूरी, अधिकारियों की नियुक्ति प्रतीक्षारत, और फाइलें आज भी देहरादून में घूम रहीं हैं।

राजनीतिक लाभ, हानि और विपक्ष की दो टूक

हर चुनाव से पहले गैरसैण का मुद्दा गर्माया जाता है। सत्ताधारी दल हो या विपक्ष, सब इसे अपनी-अपनी तरह से भुनाते हैं। लेकिन सत्ता में आते ही विकास के नाम पर लागत, भौगोलिक चुनौतियों और ढांचे की कमी की दुहाई दी जाती है।

इस संदर्भ में नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह का हालिया बयान बिल्कुल स्पष्ट और तीखा है। उन्होंने कहा:

> “राज्य स्थापना को 25 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन गैरसैण अब भी ‘गैर’ ही है। राजधानी वहाँ से संचालित होनी चाहिए थी, लेकिन नहीं हो रही। केवल सत्र करवाने से बात नहीं बनेगी। इसके लिए सभी जिम्मेदार हैं—सत्ताधारी भी और पूर्ववर्ती सरकारें भी।”
— प्रीतम सिंह, नेता प्रतिपक्ष, उत्तराखंड विधानसभा

 

यह बयान न केवल सत्तारूढ़ दल की आलोचना है, बल्कि राजनीतिक ईमानदारी का प्रतीक भी है, जिसमें विपक्ष ने खुद की जिम्मेदारी स्वीकार कर जनता के साथ खड़े होने का प्रयास किया है।

न्यायपालिका की चेतावनी: “गैरसैण केवल विकल्प नहीं, उत्तराखंड की आत्मा है”

इसी मुद्दे पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश ने भी हाल ही में कहा:

> “राजधानी का अर्थ केवल भवनों से नहीं होता, बल्कि उस भावना से होता है जो राज्य की रचना का मूल कारण बनी। गैरसैण उत्तराखंड की आत्मा है। यदि राज्य की नब्ज़ को समझना है, तो राजधानी वहीं होनी चाहिए जहाँ जनता ने संघर्ष की आग में सपना गढ़ा था।”

यह बयान न्यायपालिका की सामाजिक चेतना को भी सामने लाता है और यह संकेत देता है कि गैरसैण का मुद्दा अब केवल सियासत नहीं, नैतिकता का प्रश्न भी बन चुका है।

जनता की उम्मीदें और हताशा

गैरसैण को राजधानी बनाने की मांग आज भी गढ़वाल और कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रबल है। वहां के लोग मानते हैं कि इससे: पलायन रुकेगा, संतुलित विकास होगा, राज्य का शासन पहाड़ों की नब्ज़ को समझेगा लेकिन सरकारों की सुस्त चाल और नौकरशाही की अनिच्छा ने इस उम्मीद को धीरे-धीरे हताशा में बदलना शुरू कर दिया है।

 क्या भविष्य में बदलेगा परिदृश्य?

राज्य का राजनीतिक परिदृश्य तब तक नहीं बदलेगा, जब तक जनता खुद गैरसैण के पक्ष में निर्णायक दबाव नहीं बनाए। जन-आंदोलन यदि फिर से संगठित हों, और राजनीतिक दलों को जनादेश इस मुद्दे पर मिले, तो गैरसैण केवल एक प्रतीक नहीं, वास्तविक राजधानी बन सकती है।

 

 

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