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हरेला: प्रकृति पर्व अब बना पर्यावरणीय आंदोलन

इस वर्ष पांच लाख पौधे रोपने का है लक्ष्य , हर साल 16 जुलाई को पूरे उत्तराखंड में मना जाता है हर्षोल्लास से

देहरादून, 15 जुलाई : उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला न केवल हरियाली और प्रकृति के संरक्षण का संदेश देता है, बल्कि यह राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता और कृषिपरक जीवनशैली का भी जीवंत उदाहरण है। हरेला अब सिर्फ बीज बोने या प्रतीकात्मक परंपरा नहीं, बल्कि उत्तराखंड की प्रकृति और भविष्य के लिए उठाया गया हरियाली का संकल्प है। हरेला पर्व हर साल 16 जुलाई को पूरे उत्तराखंड में बड़े उत्साह और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। कुमाऊं मंडल से शुरू हुआ यह पर्व अब गढ़वाल और तराई क्षेत्रों में भी व्यापक रूप से लोकप्रिय हो चुका है। इस वर्ष 5 लाख से अधिक पौधे रोपने का लक्ष्य रखा गया है।

  • कब और कैसे शुरू हुआ हरेला पर्व

हरेला पर्व की शुरुआत का कोई एक निश्चित वर्ष नहीं मिलता, लेकिन इतिहासकारों के अनुसार यह पर्व हजारों वर्षों से उत्तराखंड के ग्रामीण कृषि समाज में जीवित परंपरा के रूप में प्रचलित है। लोक मान्यताओं के अनुसार, हरेला सावन माह की शुरुआत और वर्षा ऋतु के स्वागत में मनाया जाता है। इसे शिव–पार्वती के विवाह और सृष्टि के आरंभ से भी जोड़ा जाता है।

शुरूआती दौर में किसान अपनी आने वाली फसलों के अच्छे उत्पादन और हरियाली की कामना के लिए इसे मनाते थे। घरों में मिट्टी में गेहूं, जौ, मक्का आदि के बीज बोकर दस दिनों तक उगाए जाते और इसी हरी अंकुरित हरियाली को ‘हरेला’ कहा गया। इन पत्तों को काटकर परिवार के हर सदस्य के सिर पर रखकर सुख-समृद्धि और लंबी उम्र की कामना की जाती थी।

हर साल कैसे मनाया जाता है हरेला?

हरेला के 10 दिन पहले घरों में मिट्टी से भरे छोटे पात्रों में बीज बोए जाते हैं। 16 जुलाई को उगी हुई हरियाली (हरेला) को काटकर सबसे बड़े बुजुर्ग परिवार के हर सदस्य को आशीर्वाद स्वरूप सिर पर रखकर दीर्घायु, सुख-शांति की कामना करते हैं। इसके साथ ही देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और पारंपरिक गीत गाए जाते हैं – जैसे ‘जी रया, जागि रया, फले-फूले, बढ़ी रया’।

गांवों में इस दिन ‘डिकारा’ यानी मिट्टी से बनी शिव-पार्वती की मूर्तियों की पूजा का भी प्रचलन है। लोकगीतों के साथ गीड़ी-खेल, झोड़ा-चांचरी जैसे लोकनृत्य और मेलों का आयोजन होता है।

अब बना सामाजिक और सरकारी अभियान 

पहले यह पर्व सिर्फ खेतों और घरों तक सीमित था, लेकिन अब यह एक बड़ा सामाजिक और सरकारी अभियान बन चुका है। बीते 15 वर्षों से राज्य सरकार इसे ‘पर्यावरण संरक्षण’ और ‘पौधरोपण’ के साथ जोड़कर मना रही है। हर वर्ष लाखों पौधे इस दिन लगाए जाते हैं। 2020 के बाद से उत्तराखंड सरकार ने ‘एक पेड़ माँ के नाम’ थीम पर इसे और व्यापक रूप दिया। स्कूल, कॉलेज, पंचायतें, सरकारी-गैर सरकारी संस्थान अब इसमें सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।

इस वर्ष हरेला पर्व में क्या विशेष

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में इस बार प्रदेश में 5 लाख से अधिक पौधों के रोपण का लक्ष्य तय किया गया है। वन विभाग, शिक्षा विभाग, कृषि विभाग, और नगर निकायों के सहयोग से पूरे उत्तराखंड में 16 जुलाई को व्यापक स्तर पर पौधरोपण कार्यक्रम होंगे। इसमें बच्चों, महिलाओं, युवाओं और बुजुर्गों तक की भागीदारी सुनिश्चित की गई है।

‘धरती माँ का ऋण चुकाओ’ और ‘हरेला सिर्फ एक पर्व नहीं, यह भावी पीढ़ी का निवेश है’ जैसे संदेशों के साथ जगह-जगह अभियान चलाए जा रहे हैं। भीमताल, नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून और हरिद्वार में पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम, पौधरोपण, लोकगीत, लोकनाट्य और प्रदर्शनियों का आयोजन प्रस्तावित है।

क्यों खास है हरेला उत्तराखंड के लिए?

हरेला केवल त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड के लोकजीवन की वह परंपरा है, जिसने आने वाली पीढ़ियों को प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण का भाव सिखाया । आज जब जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और हरियाली के संकट की चर्चा हो रही है, उत्तराखंड का यह पर्व संपूर्ण भारत के लिए प्रेरणा है कि कैसे लोकपरंपरा को पर्यावरण से जोड़कर जन आंदोलन बनाया जा सकता है।

संक्षेप में हरेला पर्व की मुख्य बातें :

पर्व का नाम:  हरेला

तिथि:  हर साल 16 जुलाई

उत्पत्ति : कृषि और प्रकृति की परंपरा, कुमाऊं से

धार्मिक मान्यता : शिव-पार्वती विवाह, हरियाली, फसल समृद्धि

मुख्य गतिविधियां : बीज बोना, पौधरोपण, लोकगीत, लोकनृत्य, डिकारा पूजा

अब का स्वरूप:  सरकारी-गैरसरकारी पौधरोपण, पर्यावरण संरक्षण अभियान

 

 

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