34 साल बाद मां कालिंका देंगी भक्तों को दर्शन
ऐतिहासिक रथ यात्रा शुरू, नौ महीने तक करेंगी देवभूमि भ्रमण बदरी-केदार से लेकर ध्यांणियों तक पहुंचेगी देवी डोली, लोक आस्था और संस्कृति का अनुपम संगम
भर्की गांव में मंदिर से बाहर आती मां कालिंका की डोली। भक्तों ने जयकारों के साथ मां को ऐतिहासिक रथ यात्रा के लिए किया विदा।
चमोली, 10 जुलाई : उर्गम घाटी की अधिष्ठात्री देवी मां कालिंका की ऐतिहासिक रथ यात्रा वीरवार को एक भव्य धार्मिक आयोजन और परंपरागत रीति-रिवाजों के साथ भर्की गांव से आरंभ हुई। यह रथ यात्रा 34 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद हो रही है, जिससे पूरे पैनखंडा क्षेत्र में आध्यात्मिक ऊर्जा और श्रद्धा की लहर दौड़ गई है।
प्राचीन मंदिर में विधिवत पूजा से हुई शुरुआत
सुबह होते ही भर्की गांव के प्राचीन मंदिर में आचार्य मुरारी प्रसाद सेमवाल, मोहन प्रसाद शास्त्री, मनोहर सेमवाल, भुवनेश्वर प्रसाद, प्रशांत सेमवाल और पश्वा लक्ष्मण सिंह नेगी की अगुवाई में देवी कालिंका की विशेष पूजा-अर्चना की गई। धार्मिक विधियों के संपन्न होने के बाद, परंपरागत वाद्य यंत्रों की गूंज और श्रद्धा से भरे जयकारों के बीच देवी की रथ डोली को मंदिर से बाहर लाया गया। यहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी और सभी ने माता के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया।
नौ महीने की यात्रा में देव स्थलों का होगा दर्शन
देवरा समिति के अध्यक्ष हर्षवर्धन फरस्वाण ने बताया कि मां कालिंका की रथ यात्रा करीब नौ महीने तक चलेगी। इस दौरान देवी की डोली बदरीनाथ, केदारनाथ, रुद्रनाथ, भविष्य बदरी और नंदा मंदिर लाता सहित कई प्रमुख धार्मिक स्थलों का भ्रमण करेगी। साथ ही, दशोली और जोशीमठ ब्लॉक के अनेक गांवों में भी यात्रा पहुंचेगी, जहां श्रद्धालु देवी के दर्शन करेंगे।
बेटियों से मिलने पहुंचेगी देवी डोली
रथ यात्रा की सबसे भावनात्मक परंपरा यह है कि देवी मां अपनी विवाहित बेटियों (ध्यांणियों) से उनके ससुराल में भेंट करेंगी और उन्हें आशीर्वाद देंगी। यह उत्तराखंड की समृद्ध लोक संस्कृति में बेटी और देवी के आत्मीय संबंध को दर्शाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक जुड़ाव को गहराता है।
नंदा अष्टमी पर गांव में होगा पुनः प्रवास
फरस्वाण ने जानकारी दी कि रथ यात्रा नंदा अष्टमी के अवसर पर एक बार फिर गांव में लौटेगी और उसके बाद अगले चरण के भ्रमण के लिए प्रस्थान करेगी। यह आयोजन केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण और पीढ़ियों से चली आ रही लोक परंपराओं को जीवित रखने का भी माध्यम बन रहा है।