
गीता मिश्रा
उत्तराखंड की वीरभूमि ने न जाने कितने सपूतों को जन्म दिया है, जिन्होंने देश की आज़ादी और जनकल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। ऐसे ही महान सपूत थे श्री देव सुमन, जिनका जीवन गढ़वाल रियासत के जनविरोधी शासन के विरुद्ध संघर्ष और बलिदान की गाथा है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
श्री देव सुमन का जन्म 25 मई 1916 को टिहरी गढ़वाल के जौनपुर क्षेत्र के चंयसिल गांव में हुआ था। वे बचपन से ही मेधावी और संवेदनशील प्रवृत्ति के थे। उनका मन सामाजिक अन्याय और कुरीतियों के प्रति बेहद सजग था। उन्होंने इलाहाबाद और बनारस में शिक्षा प्राप्त की, जहाँ उनके विचारों में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हुई।
राजशाही के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत
टिहरी रियासत में उस समय प्रजापीड़न चरम पर था। जनमानस पर अत्याचार, करों का बोझ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव आम बात थी। देव सुमन ने इस अन्याय के खिलाफ ‘टिहरी प्रजामंडल’ की स्थापना की। उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को अपनाया और अहिंसा तथा सत्याग्रह के माध्यम से संघर्ष प्रारंभ किया।
जनजागरण और पत्रकारिता में योगदान
श्री देव सुमन ने जन-जागरूकता के लिए “स्नेही” नामक एक पत्रिका निकाली, जिसमें उन्होंने राजा और उसकी नीतियों की आलोचना करते हुए जनता को अपने अधिकारों के प्रति सजग किया। ब्रिटिश शासन के साथ ही वे स्थानीय राजशाही को भी बराबरी से दोषी मानते थे।
कारावास और अमानवीय यातनाएं
1944 में जब उन्होंने टिहरी नरेश की यात्रा का विरोध किया और सत्याग्रह किया, तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। टिहरी जेल में देव सुमन को अत्यंत अमानवीय यातनाएं दी गईं—न खाना, न पानी, और न दवाएं। इसके विरुद्ध उन्होंने अनशन शुरू कर दिया जो 84 दिन तक चला।
बलिदान और अमरता
25 जुलाई 1944 को देव सुमन का शरीर इस दुनिया को छोड़ गया, पर उनका विचार अमर हो गया। प्रशासन ने उनकी मृत्यु को छिपाने का प्रयास किया और उनके शव को चुपचाप पहाड़ से नीचे फेंक दिया गया। लेकिन उनकी शहादत ने टिहरी आंदोलन को नई ऊर्जा दी।
देव सुमन की विरासत
आज देव सुमन उत्तराखंड के युवाओं के लिए प्रेरणा हैं। उनकी स्मृति में “श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय” की स्थापना की गई है और अनेक सड़कें, स्मारक, पुस्तकालय उनके नाम से समर्पित किए गए हैं। हर वर्ष 25 जुलाई को श्रीदेव सुमन बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
श्री देव सुमन ने दिखा दिया कि अगर उद्देश्य पवित्र हो, तो एक अकेला व्यक्ति भी व्यवस्था के खिलाफ एक जनआंदोलन खड़ा कर सकता है। उत्तराखंड उनकी अमर स्मृति को नमन करता है और आने वाली पीढ़ियों से यह अपेक्षा करता है कि वे उनके विचारों को आत्मसात करें।